Vishambhar nath sharma kaushik biography of martin
ताई को लिख कर अमर हो गए पंडित विश्वंभर नाथ कौशिक
अंबाला के एक थे पंडित इंदरसेन. अंबाला तब छोटा कस्बा था और उनकी वकालत चलती नहीं थी. पंजाब में तब सिवाय लाहौर के कहीं कोई बड़ी अदालत भी नहीं थी जहां वे जाकर प्रैक्टिस करते, इसलिए वे कानपुर चले गए और देखते ही देखते बड़े वकील बन गए. कानपुर तब अंग्रेजों ने रुचि के साथ बसाया था और पहले स्वतंत्रता संग्राम के बाद ब्रिटिश सरकार ने शहर को आधुनिक पैटर्न पर लाने के लिए प्रयास किया और दीवानी व फौजदारी की एक बड़ी कचहरी कायम की. तब यहां प्रैक्टिस करने के लिए दिल्ली और लाहौर व आगरा के तमाम वकील आ गए. मोतीलाल नेहरू, पंडित पृथीनाथ और इन्हीं के साथ अंबाला छोड़कर कानपुर आ गए पंडित इंदरसेन. पंडित इंदरसेन की प्रैक्टिस चल निकली.
उन्होंने कानपुर में बड़ी जमींदारी खरीदी और ठाठ के साथ कानपुर में बंगाली मोहाल में बड़ी सी कोठी बनवाकर रहने लगे. पर पंडित जी निसंतान थे. दौलत इतनी ज्यादा कि पीढ़ियां तक खुले हाथ खर्च करती रहें तो भी कम न पड़े पर उस दौलत को बरतने वाला कोई नहीं. पंडित जी आखिर एक दिन अंबाला गए और अपने भतीजे हरिश्चंद्र कौशिक के बेटे विश्वंभर नाथ को गोद लेकर कानपुर वापस आ गए. वह का साल था और तब बालक विश्वंभर नाथ कुल चार बरस के थे. यही बालक विश्वंभर नाथ कालांतर में पंडित विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक कहलाए और हिंदी कहानी के शुरुआती लेखकों में प्रतिष्ठित हुए.
वीं जयंती का वर्ष
यह पंडित विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक की वीं जयंती का वर्ष है और उसे धूमधाम से मनाने की तैयारी भी की जा रही है. पंडित विश्वंभर नाथ के दादा शहर के नामी वकील थे और साथ में बड़ी जमींदारी थी, इसलिए घर पर पैसों की कमी नहीं थी. बालक विश्वंभर नाथ को स्कूली शिक्षा से अधिक रुचि किस्से-कहानी पढ़ने और लिखने में थी. वे उर्दू में रागिब नाम से शेरो-शायरी करने लगे और कहानियां भी लिखीं. तब वे मुंशी दयानारायण निगम के अखबार जमाना में लिखा करते थे और उसी में मुंशी नवाब राय उर्फ प्रेमचंद भी लिखते थे. प्रेमचंद तब कानपुर के मारवाड़ी इंटर कालेज में अध्यापक थे. दोनों की मेल-मुलाकातें हुईं और तय हुआ कि अगर ज्यादा पाठकों तक पहुंचना है तो उन्हें देवनागरी में लिखना होगा. दोनों ने अपनी समस्या मुंशी दयानारायण निगम के समक्ष रखी.
में प्रकाशित हुई थी रक्षाबंधन कहानी
मुंशी जी ने कहा कि देवनागरी में लिखना है तो पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी से मिलो. वे सरस्वती निकालते हैं और सरस्वती इस समय हिंदी की सबसे अच्छी मैगजीन है. मुंशी जी ने प्रेमचंद और विश्वंभर प्रसाद का परिचय आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी से करा दिया. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी तब कानपुर के जूही मोहल्ले में ही रहकर सरस्वती निकाल रहे थे. उन्होंने इन दोनों उर्दू लेखकों से हिंदी देवनागरी में लिखने का आग्रह किया. विश्वंभर नाथ कौशिक ने रक्षाबंधन कहानी हिंदी में लिखी और आचार्य द्विवेदी ने उसमें संशोधन कर उसे सरस्वती में में छापा. इसी तरह मुंशी प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर को में सरस्वती में प्रकाशित कर दिया. इसके बाद तो इन दोनों ही लेखकों ने अनवरत हिंदी में लिखना शुरू कर दिया.
ताई लिखकर हुए अमर
कौशिक जी ने कई कहानियां लिखीं पर ताई कहानी लिखकर तो वे अमर हो गए. उसी तरह जैसे उसने कहा था लिखकर पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी अमर हो गए थे. हालांकि गुलेरी जी ने कुल तीन ही कहानियां लिखी थीं पर उसने कहा था तो हिंदी साहित्य की बेजोड़ कहानी है. पंडित विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक ने भी ताई का सृजन यूं किया कि मध्यवर्गीय पात्रों में ताई अमर हो गईं. ताई यानी पिता से बड़े भाई की पत्नी जिसे पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ताई कहा जाता है.
वह एक ऐसी ताई थी जिसके अपनी संतान कोई नहीं होती. उसके देवर के दो बच्चे हैं और ताई के पति उन बच्चों से ही इतने अनुरक्त रहते हैं कि उन्हें अपने बच्चे नहीं होने की बात खलती ही नहीं और यही बात ताई को और सालती है. वह दिन-रात अपनी संतान-हीनता पर इतनी दुखी रहती है कि इन प्यारे बच्चों की खेलकूद और उनका सहज खिलंदड़ी स्वभाव उसके दिल को और जलाता है.
एक दिन जब देवर का लड़का आसमान में उड़ती पतंग को लेकर इतना उद्वेलित हो जाता है और बोल पड़ता है कि ताई तुम हमें फौरन पतंग दिला दो और अगर नहीं दिलवाओगी तो मैं ताऊ से तुम्हारी शिकायत कर दूंगा. बच्चे ने यह बात सहज स्वभाव के चलते कही है पर ताई नाराज हो जाती है और कह देती है कि अच्छा तू अब इतना ढीठ हो गया है कि मेरी ही शिकायत करेगा. अब मंगा ले अपने ताऊ से ही पतंग और उस बच्चे को झिड़क देती है. बच्चा सहम जाता है. उसी वक्त एक पतंग टूटकर उसकी छत की तरफ आती है और वह बच्चा उसे पकड़ने को भागता है लेकिन पतंग नीचे आंगन की तरफ चली जा रही है और इसी चक्कर में बच्चे का पैर फिसल जाता है और वह मुंडेर पर लटक जाता है.
अब छत पर सिर्फ ताई ही है और वह बच्चा अपनी ताई की तरफ निहारते हुए कातर स्वर में बुलाता है ताई. लेकिन ताई यह देखकर सोचती है गिर जाने दो. कम से कम मेरा तो काल कटेगा और वह चुप खड़ी रहती है और बच्चा फिर कहता है अरी ताई. यह सुनते ही उसकी ममता एकदम से उमड़ पड़ती है और वह बच्चे को पकडऩे को दौड़ पड़ती है मगर तब तक बच्चे का हाथ मुंडेर पर से फिसल जाता है और बच्चा आंगन में जाकर गिरता है. इसके बाद से ताई की अपने देवर के इस बच्चे के प्रति इतनी ममता उमड़ आती है कि वे स्वयं बेहोशी में उसी बच्चे का नाम लेकर बड़बड़ाती रहती हैं और जब बच्चा ठीक हो जाता है तो वह उस पर जान देने लगती हैं.
ममतामयी ताई
तात्पर्य यह कि ताई में स्त्रीजन्य ममता तो थी पर अपनी संतानहीनता के दुख में उनकी ममता अपने देवर के इस बच्चे के प्रति उमड़ ही नहीं पाती थी. और जब वह ममता उमड़ी तो ताई वाकई ममतामयी ताई बन गईं. पंडित विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक मनोवैज्ञानिक कहानियां लिखने में मास्टर थे और उस वक्त चाहे पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी रहे हों या प्रेमचंद अथवा भगवतीचरण वर्मा मनोवैज्ञानिक कहानियां ही लिखा करते थे. यूं तो कौशिक जी की दर्जनों कहानियां हैं पर एक ताई ने ही उन्हें अमर कर दिया.
पौत्र ने आगे बढ़ाई थी विरासत
कौशिक जी के वंशज आज भी कानपुर के उसी मोहल्ले में रहते हैं और उनके पौत्र नीलांबर कौशिक स्वयं एक अच्छे कहानी लेखक और उपन्यासकार थे. नीलांबर जी ने उनकी हर याद और हर चीज को जस का तस रखा हुआ था. वे उसी कमरे में रहते रहे थे जिसमें बैठकर विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक लिखा करते थे. उनका मकान और उनका बैठका वैसा ही है जैसा तब था जब उसमें प्रेमचंद, भगवतीचरण वर्मा और गणेश शंकर विद्यार्थी आकर बैठा करते थे. हालांकि नीलांबर जी का जन्म जब हुआ तब तक विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक को दिवंगत हुए पांच साल गुजर चुके थे. कौशिक जी का निधन साल में हुआ था, पर अपने दादा के बारे में उन्होंने इतनी कहानियां सुनीं कि उनके अपने ही दादा उनके लिए किवदंती बन गए. पिछले वर्ष अगस्त में नीलांबर जी भी चल बसे.
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